Monday 6 April 2015

प्रतिबिम्ब

खिड़की में बैठी वो
पर उसका प्रतिबिम्ब
देख रही है बाहर वो
जहा खड़ा हूँ मै
जनता हूँ देख रही है उन पहाड़ो को वो
और
वो पानी की बूंदे जो शीशे पर आई
उस प्रतिबिंब का हिस्सा बन के अलग चमक.आई हैं
वो कान की झूमकीयाँ जो मुझे छेड़ रही हैं
हिलते हिलते उसके गालो को चूम रही हैं
मैं तो बस एक टक लगा के उसको  देखता रहा
ना जाने कब ये चेहरा नज़र आए
मैं ये  कैसे असमंजस में हूँ 
शायद उसे ही कुछ समझ आए

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