Wednesday 16 September 2015

मंज़िल

मैं तो खुश था अपनी ज़िंदगी में
कुछ ना चाहा था तुमसे
जी रहे थे जैसे जीना चाहिए
कर रहे थे वो सभी कुछ जो जीने के लिए चाहिए
तुम जब आए
तुम्हारी ज़रूरत ना थी
चल सी रही थी ज़िंदगी
कोई कमी ना थी
फिर सिलसिला शुरू हुआ
उन बातो का
कभी थमती और कभी रुकती सी
मैने क्या चाहा तुमसे
सही है या ग़लत
ये जानू ना
फिर तुमने ही थामा मेरा हाथ
और कहा चलो हूँ मैं तुम्हारे साथ
चलूँगा और रहूँगा हमेशा
और मैं भी चल पड़ी
ना सोचा ना समझा ना पूछा कुछ भी
फिर तुमने ही कहा
तुम कहो अपने दिल की बात मुझसे
खोलो अपने जज़्बात मेरे सामने
और मैने भी कुछ ना सोचा
और अब मैं ना खुद को जानू
ना तुमको
ना अपने जज़्बातो को
ना तुम्हारे
ज़िंदगी एक संघर्ष की तरह बन गयी
जिसका ना कोई अंत है ना कोई मंज़िल|

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