इक सन्नाटा सा है चारों और
इक आग सी लगी है
क्यूँ बेरुख़ी सी है हवाओ में
रहम की फ़रियाद सी लगी है
क्यूँ आता है कोई
मंज़िलों को छोड़ के
क्यूँ किसी की रास्तों में
आवाज़ ही नहीं है
क्यूँ लिखता है कोई
हज़ारों गीत इश्क़ में
क्यूँ किसी के लिए
अल्फ़ाज़ की कमी है
क्यूँ कोई जी गया
तेरी यादों के सहारे से
क्यूँ कैफ़-ए-जावेदाँ में
बस मौत की कमी है ।
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