Tuesday 18 August 2015

राज़

जैसे आज मन थम ही नहीं रहा
जाना चाहता है उन गलियों में
उन किताबों के पन्ने पलट रहा है
जब खुशबू है उन सूखी कलियों में

जैसे चल रहा हो उन राहो में
जहाँ का रास्ता वो भूल चुका है
जैसे वक़्त फिर चल पड़ेगा
जहाँ वो कबसे रुका है

उन सूखे दरख्तो को
आस से देखता हूँ मैं आज
जानें कब उनमें फूल खिल उठें
जानें कब ख़ोल दें वो इक नया राज़

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