Saturday, 19 July 2014

मन की पीड़ा

इंतजार है कब से तेरा
पलकें बिछये बेठे हैं
इन हवाओं में तेरे गीत हैँ
नदी वृक्ष मनमीत हैं

पहाड़ो की उस चोटी पे
जहाँ भाग कर जाते थे
सूरज को ढलते  देख कर
आलिंगन हम भरते थे

नदिया के पानी में जब हम
कणकण फैन्का करते थे
आगे आने वाले कल के
सपने देखा करते थे

पर अब तुम बस मेरे सपनों का हिस्सा हो
कल थे हकिकत मेरी आज बस इक किस्सा हो 

आओ इस जीवन में अब तुम 
कर दो मुझको अब जीवंत 
विरह ना अब मैं सह पाऊंगी 
कर दूँगी इसका मैं अंत।

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